कुम्भ अर्थात कलश का प्राचीन काल से महत्त्व चला आ रहा है,कलश के शीर्ष, मध्य व अंतिम तल भाग में तीनो ब्रह्मा,विष्णु व सदाशिव का निवास माना गया है जिसके चलते कलश का वर्तमान में भी धार्मिक महत्त्व है।मिट्टी का कलश मात्र कलश नही देवताओं का निवास स्थल है,और जो इस कलश का निर्माता है, उसका सम्मान अपने आप ऊपर हो जाता है।
मिट्टी के बर्तन बनाने वाले को प्रजापति या कुम्हार, कुम्भकार कहते हैं। इस समाज की देवी श्री यादे माँ है।
सृष्टि रचनाकार प्रजापति ब्रह्मा कुम्हार ही है जो कालचक्र से मिट्टी के मानव बनाते है और मिट्टी में ही मिला देते है।
ब्रह्मा सर्वगुण सम्पन्न होने के कारण प्रजापति की उपाधि से विभूषित है। दक्ष प्रजापति परमपिता ब्रह्मा के पुत्र थे जो समस्त पृथ्वी पर वैभवशाली शासक के नाम से विख्यात था।
प्रजापति दक्ष की 2 पत्नियां थीं. प्रसूति और वीरणी। प्रसूति से दक्ष की 24 कन्याएं थीं और वीरणी से 60 कन्याएं। इस तरह दक्ष की 84 पुत्रियां थीं। समस्त दैत्य गंधर्व अप्सराएं पक्षी पशु सब सृष्टि इन्हीं कन्याओं से उत्पन्न हुई। दक्ष की ये सभी कन्याएं देवी यक्षिणी पिशाचिनी आदि कहलाईं। उक्त कन्याओं और इनकी पुत्रियों को ही किसी न किसी रूप में पूजा जाता है।
सती का जन्म, विवाह
चूंकि दक्ष सती का विवाह शिव से न करने का निश्चय कर चुके थे अतः उन्होंने सती का स्वयंवर करने का निर्णय लिया. एक शुभ दिन सती का स्वयंवर निश्चित हुआ और जिसमें दक्ष ने सभी गंधर्व, यक्ष, देव को आमंत्रित किया.
परन्तु शिव को आमंत्रित नहीं किया. शिव जी का अपमान करने के लिए उन्होंने शिवजी की मूर्ति बनाकर द्वार के निकट लगा दी थी.
स्वयंवर के समय जब यह बात सती को पता चली तो उन्होंने जाकर उसी शिवमूर्ति के गले में वरमाला डाल दी. इसे प्रभु की लीला ही समझिये, शिव तत्क्षण वहीँ प्रकट हो गये. भगवान शिव ने सती को पत्नी रूप में स्वीकार किया और कैलासधाम चले गए.
दक्ष कुपित तो हुए पर कुछ कर न सके.
इसी घटना के कुछ दिन बाद भगवान ब्रह्मा ने एक महान यज्ञ का आयोजन किया. इस यज्ञ में उन्होंने सभी देवताओं, महान राजाओं, प्रजापतियों को बुलाया. इसके अतिरिक्त शिव, सती को भी आमंत्रित किया.
सभी लोग यज्ञस्थल पर आये और अपने आसन पर विराजमान हुए. दक्ष प्रजापति सबसे अंत में वहां पहुंचे.
जब दक्ष प्रजापति वहाँ पहुंचे तो ब्रह्मा, शिव, सती के अतिरिक्त सभी लोग उनके सम्मान में उठ खड़े हुए. ब्रह्मा दक्ष के पिता थे और शिव दक्ष के दामाद थे, इन दोनों का स्थान रीति के अनुसार बड़ा माना जाता है.
दक्ष ने बात पर ध्यान नहीं दिया और उन्हें लगा शिव उन्हें अपमानित करने के लिए खड़े नहीं हुए. दक्ष ने निर्णय लिया कि वो भी इसी प्रकार शिव का अपमान करेंगे.
कुछ दिनों बाद राजा दक्ष ने ठीक उसी प्रकार एक यज्ञ का आयोजन किया परन्तु शिव, सती को निमंत्रित ही नहीं किया. जब सती को यह पता चला तो उन्होंने पितृप्रेम वश यज्ञ में जाने का निश्चय किया.
शिव ने सती से कहा कि बिना निमंत्रण के जाना उचित नहीं, पर सती को लगा कि वो तो दक्ष की प्रिय पुत्री हैं अतः किसी औपचारिकता की क्या आवश्यकता.
विधि का विधान, सती यज्ञ में पहुँच तो गयी पर उनके पिता ने उनसे उचित व्यवहार नहीं किया और सभा में शिव का अपमान भी किया. फलस्वरूप अपने और अपने पति के अपमान से दुखी सती ने यज्ञ कुंड में कूदकर प्राणों की आहुति दे दी.
मरने के पूर्व सती ने अपने पिता दक्ष को श्राप दिया कि उनके झूठे घमंड और दम्भी व्यव्हार का परिणाम उनको भुगतना पड़ेगा और शिव के क्रोध से दक्ष और उनके साम्राज्य का विनाश हो जायेगा. बाद में सती का श्राप अक्षरशः सत्य भी हुआ.
दक्ष के पुत्रों की दास्तान
:
सर्वप्रथम उन्होंने अरिष्ठा से 10 सहस्र हर्यश्व नामक पुत्र उत्पन्न किए थे। ये सब समान स्वभाव के थे। पिता की आज्ञा से ये सृष्टि के निमित्त तप में प्रवृत्त हुए, परंतु देवर्षि नारद ने उपदेश देकर उन्हें विरक्त बना दिया। विरक्त होने के कारण उन्होंने कोई विवाह नहीं किया। वे सभी ब्रह्मचारी रहे।
दूसरी बार दक्ष ने एक सहस्र शबलाश्व (सरलाश्व) नामक पुत्र उत्पन्न किए। ये भी देवर्षि के उपदेश से यति हो गए। दक्ष को क्रोध आया और उन्होंने देवर्षि को शाप दे दिया- 'तुम दो घड़ी से अधिक कहीं स्थिर न रह सकोगे।'
इनके पुत्रों का वर्णन ऋग् 10-143 में तथा इन्द्र द्वारा इनकी रक्षा ऋग् 1-15-3 में आश्विनी कुमारों द्वारा इन्हें बृद्ध से तरुण किए जाने का कथन ऋग् 10-143-1 में है। राजा दक्ष के पुत्र पृषध शूद्र हो गए थे तथा प्रायश्चितस्वरूप तपस्या करके उन्होंने मोक्ष प्राप्त किया। उन्हीं से उनका वंश चला।
सर्वप्रथम उन्होंने अरिष्ठा से 10 सहस्र हर्यश्व नामक पुत्र उत्पन्न किए थे। ये सब समान स्वभाव के थे। पिता की आज्ञा से ये सृष्टि के निमित्त तप में प्रवृत्त हुए, परंतु देवर्षि नारद ने उपदेश देकर उन्हें विरक्त बना दिया। विरक्त होने के कारण उन्होंने कोई विवाह नहीं किया। वे सभी ब्रह्मचारी रहे।
दूसरी बार दक्ष ने एक सहस्र शबलाश्व (सरलाश्व) नामक पुत्र उत्पन्न किए। ये भी देवर्षि के उपदेश से यति हो गए। दक्ष को क्रोध आया और उन्होंने देवर्षि को शाप दे दिया- 'तुम दो घड़ी से अधिक कहीं स्थिर न रह सकोगे।'
इनके पुत्रों का वर्णन ऋग् 10-143 में तथा इन्द्र द्वारा इनकी रक्षा ऋग् 1-15-3 में आश्विनी कुमारों द्वारा इन्हें बृद्ध से तरुण किए जाने का कथन ऋग् 10-143-1 में है। राजा दक्ष के पुत्र पृषध शूद्र हो गए थे तथा प्रायश्चितस्वरूप तपस्या करके उन्होंने मोक्ष प्राप्त किया। उन्हीं से उनका वंश चला।
दक्ष गोत्र के प्रवर- गोत्रकार ऋषि के गोत्र में आगे या पीछे जो विशिष्ट सम्मानित या यशस्वी पुरुष होते हैं, वे प्रवरीजन कहे जाते हैं और उन्हीं से पूर्वजों को मान्यता यह बतलाती है कि इस गोत्र के गोत्रकार के अतिरिक्त और भी प्रवर्ग्य साधक महानुभाव हुए है। दक्ष गोत्र के 3 प्रवर हैं- 1. आत्रेये, 2. गाविष्ठर व 3. पूर्वातिथि।
कुम्भ अर्थात कलश का प्राचीन काल से महत्त्व चला आ रहा है,कलश के शीर्ष, मध्य व अंतिम तल भाग में तीनो ब्रह्मा,विष्णु व सदाशिव का निवास माना गया है जिसके चलते कलश का वर्तमान में भी धार्मिक महत्त्व है।मिट्टी का कलश मात्र कलश नही देवताओं का निवास स्थल है,और जो इस कलश का निर्माता है, उसका सम्मान अपने आप ऊपर हो जाता है।
दक्ष के पुत्रों की दास्तान : सर्वप्रथम उन्होंने अरिष्ठा से 10 सहस्र हर्यश्व नामक पुत्र उत्पन्न किए थे। ये सब समान स्वभाव के थे। पिता की आज्ञा से ये सृष्टि के निमित्त तप में प्रवृत्त हुए, परंतु देवर्षि नारद ने उपदेश देकर उन्हें विरक्त बना दिया। विरक्त होने के कारण उन्होंने कोई विवाह नहीं किया। वे सभी ब्रह्मचारी रहे।
दूसरी बार दक्ष ने एक सहस्र शबलाश्व (सरलाश्व) नामक पुत्र उत्पन्न किए। ये भी देवर्षि के उपदेश से यति हो गए। दक्ष को क्रोध आया और उन्होंने देवर्षि को शाप दे दिया- 'तुम दो घड़ी से अधिक कहीं स्थिर न रह सकोगे।'
इनके पुत्रों का वर्णन ऋग् 10-143 में तथा इन्द्र द्वारा इनकी रक्षा ऋग् 1-15-3 में आश्विनी कुमारों द्वारा इन्हें बृद्ध से तरुण किए जाने का कथन ऋग् 10-143-1 में है। राजा दक्ष के पुत्र पृषध शूद्र हो गए थे तथा प्रायश्चितस्वरूप तपस्या करके उन्होंने मोक्ष प्राप्त किया। उन्हीं से उनका वंश चला। -(विष्
दक्ष गोत्र के प्रवर- गोत्रकार ऋषि के गोत्र में आगे या पीछे जो विशिष्ट सम्मानित या यशस्वी पुरुष होते हैं, वे प्रवरीजन कहे जाते हैं और उन्हीं से पूर्वजों को मान्यता यह बतलाती है कि इस गोत्र के गोत्रकार के अतिरिक्त और भी प्रवर्ग्य साधक महानुभाव हुए है। दक्ष गोत्र के 3 प्रवर हैं- 1. आत्रेये, 2. गाविष्ठर व 3. पूर्वातिथि।
उपकरण
चाक चलाने की डण्डी चकरेटी कहलाती है तथा यह चाक पर जिस गढढे मे फंसाई जाती है उसे गुल्बी कहा जाता है। गुल्बी का स्थान चाक पर कहां हो यह इस पर निर्भर करता है कि उस चाक पर कितनी बड़ी चीज बनाई जानी है बड़े बर्तन बनाने के लिये गुल्बी का चाक के केन्द्र से दूर होना आवश्यक है नहीं तो बर्तन गुल्बी का ऊपर तक जायेगा और चाक घुमाना मुश्किल होगा। कीला एक पत्थर के छोटे चाक में फंसा कर जमीन में गड़ा जाता है उस पत्थर को पही कहते है और खूटे को कीला कहते है, ये केर की लकड़ी का बनाया जाता है। कीला अपने पर चाक को इस तरह धारण किये रहता है जिस प्रकार भगवान ने उंगली पर गोर्वधन पर्वत धारण कर लिया था। केर का वृक्ष खेर जाति का है परन्तु यह पुरुष वृक्ष माना जाता है, इसकी खासियत यह होती है कि इसकी लकड़ी धिसती या कटती कम है, इसलिये यह ज्यादा दिन काम देता है। कीला की ऊंचाई दो से तीन उंगल ऊँची रखी जाती है। ज्यादा ऊंचाई से चाक तेज घुमाते समय फिक जाने का भय रहता है साथ ही यह बन्द होने पर पैरों पर गिरने का डर भी नहीं रहता क्योंकि नीचा होने पर चाक झुकने पर जल्द ही जमीन पर आ टिकता है।
कीला चाक में जिस गडडे में फ्टि होता है उसे गुल्बी कहते है। इस स्थान पर थोड़ा तेल लगाया जाता है। ताकि चिकनाई से चाक आसानी से घूमे। बर्तन काटने के लिये प्रयोग किया जाने वाला धागा छेन कहलाता है। कुम्हार इसे बहुत सिद्ध वस्तु मानते हैं। कुम्हार अपना छेन किसी भी अन्य जात के लोगों को नहीं देते, यह बड़ी पुरानी परम्परा है, इसे अपशकुन माना जाता है। समझदार कुम्हार आपस में भी एक दूसरे का छेन लेते मांगते नहीं है। चाक पत्थर का बनता है, काले पत्थर का चाक नही बनता, पत्थर वह अच्छा माना जाता है जो खन्नाटेदार आवाज देता है। चाक ज्यादा देर तक ताव में रहे इस लिये उसकी निचली सतह पर दो स्तर (घर) बनाये जाते है। छोटे ढाई फुट के चाक को चकुलिया कहते है, तीन फुट और उससे बड़े चाक, चाक कहलाते है।
आजकल पैर से चलाने वाले और बिजली की मोटर से चलने वाले चाक भी बन गये है पर पैर से चलाने वाले चाक व्यवसायिक कुम्हारों के लिये बेकार है क्योंकि वह तुरन्त ढीले पड़ जाते है। हाथ से धुमाये जाने वाले चाक पर काम करने में अधिकतर कुम्हार दक्ष होते हैं क्योंकी वे चाक की गीत के अनुसार काम करते है जैसे पहले चाक बहुत तेज घूमता है उस समय मिटटी को उठाना और उसे फाड़ना आसान होता है परन्तु बाद में वह कुछ सुस्त हो जाता है उस समय गीले बर्तन को अन्तिम आकार देकर, चाक से उतार लेना आसान होता है। यदि चाक निरन्तर तेज घूमता रहे तो बर्तन उतारा नहीं जा सकता, यही कारण है कि बिजली के चाक मे तीन गीयर होते हैं और काम करते समय गीयर बदल कर चाक की गति नियंत्रित करना पड़ती है। कुम्हारों के लिये बिजली का चाक ज्यादा उपयोगी नहीं होता क्योंकि एक तो यह बहुत छोटा होता है दूसरे यदि बिजली न हो तो काम ही नहीं हो पायेगा।
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